Wednesday 6 May 2020

सुखदेव थापर

पंजाब की धरती वीरों की धरती रही है ,चाहे मुग़ल हो या फिर अंग्रेज या कोई और शत्रु सभी ने पंजाबियो के बौद्धिक और बाहुबल का लोहा माना है ,जितनी विकट स्थिति आई उतनी ही विप्पति समान अग्नि में स्वर्ण की भाती तप के चमक ही बिखेरी है पंजाबियो ने ,इन्ही स्वर्णिम वीरों में से एक है अमर बलिदानी "सुखदेव थापर जी "| हालांकि इनके बारे जितना लिखू कम है मेरे पास शब्द नहीं है इस महान व्यक्ति के लिए फिर भी एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ | सुखदेव थापर जी का जन्म १५ मई १९०७ को लुधिआने के नौ गढ़ मोहल्ले के खत्री परिवार रामलाल थापर और राली देवी के यहाँ हुआ था | लाहौर के नेशनल कॉलेज में एक युवा छात्र के रूप में, उन्होंने भारत के अतीत को समझने और दुनिया भर में हो रहे क्रांतिकारी आंदोलनों की छानबीन करने के लिए अध्ययन मंडलियों की शुरुआत की और इसी कॉलेज में वह पहली बार बलिदानी भगत सिंह और यशपाल जी से मिले थे।सुखदेव हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) की पंजाब इकाई के प्रमुख थे, और भारत को ब्रिटिश शासन की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए पंजाब और उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों में क्रांतिकारी कोशिकाओं का आयोजन किया करते थे ,उन्होंने कई क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभाई, लेकिन उन्हें लाहौर षड्यंत्र मामले में उनके साहसी हमले के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है। बलिदानी सुखदेव को १८ दिसंबर १९२८ के लाहौर षड्यंत्र मामले में उनकी भागीदारी के लिए सबसे अच्छा याद किया जाता है । वह भगत सिंह और शिवराम राजगुरु के मुख्य सहयोगी थे, जिन्होंने १९२८ में स्वतंत्रा बलिदानी लाला लाजपत राय जी की हिंसक मौत के जवाब में उप पुलिस अधीक्षक जे पी. सौंडर्स की हत्या की थी । सुखदेव ने १९२९ में 'जेल भूख हड़ताल' जैसी कई क्रांतिकारी गतिविधियों में मुख्य भूमिका निभाई थी ; वह लाहौर षड्यंत्र (खंड ३ )मामले (१८ दिसंबर १९२८) में अपने उनके मुख्य संचालन व हमले के लिए जाने जाते है | १६ अप्रैल १९२९ के लाहौर षड्यंत्र मामले(खंड ३ ) में उन्हें प्रधान आरोपी, जिसका शीर्षक "ताज बनाम सुखदेव" पढ़ता है ,एक ५८७ पन्नों का उनपर दाखिल किया पर्चा है ,आप इस बात से अंदाजा लगा सकते होंगे की "ताज बनाम सुखदेव" का कितना बड़ा अर्थ है की एक अकेले व्यक्ति से समुच्चे सम्राज्य द्वारा लड़ाई जो साफ़ साफ़ इनके क्रांतिकारी कृत्य को दर्शाता है ,लाहौर षड्यंत्र मामले की पहली सूचना रिपोर्ट (एफआईआर), हैमिल्टन हार्डिंग, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, आर. एस. पंडित के अदालत में अप्रैल १९२९ में विशेष मजिस्ट्रेट, सुखदेव को एक सूची में आरोपी संख्या १ . के रूप में उल्लेख किया गया है और भगत जी १२ , जबकि राजगुरु जी को २० स्थान प्राप्त है | यह सुखदेव ही है जो दल का नेतृत्व करते है और १९२८ में उप पुलिस अधीक्षक जे पी. सौंडर्स की हत्या में समिल्लित भगत सिंह और शिवराम राजगुरु उनका मुख्य सहयोग करते है और यह हमला उन्होंने घातक पुलिस की पिटाई के कारण वयोवृद्ध नेता लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया था | ८ अप्रैल १९२९ में केंद्रीय विधानसभा हॉल में ध्वनि बम विस्फोट के बाद उन्हें और सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया गया और उनके अपराध का दोषी ठहराया गया, और फांसी की सजा सुनाई गई | उनको फांसी देने की तिथि २४ मार्च १९३१ तय थी परन्तु जनमानस के मन में उनके प्रति प्रेम और सम्मान से भयभीत होकर अंग्रेजो ने उन्हें एक दिन पूर्व २३ मार्च १९३१ को ही रात्रि को लाहौर कारावास में ही फांसी दे दी और उनके शवों को फ़िरोज़पुर में सतलुज नदी के किनारे चुपके से उनके शरीर का अंतिम संस्कार कर दिया | मै निचे आपको लाहौर षड्यंत्र मामले(खंड ३ ) की लिंक दे रहा हूँ आप एक बार अवश्य देखे | जय माँ भारती
https://www.abhilekh-patal.in/jsp…/handle/123456789/2742319…

Sunday 26 April 2020

मदन लाल ढींगरा

"मेरा मानना है की जो राष्ट्र विदेशीयों के अधिकार में जी रहा हो वह निरतंर ही युद्ध की स्थिति में होता है ,चूंकि खुली लड़ाई एक निहत्थे आदमी के लिए असंभव है,मेरे ऊपर अचरता का हमला हुआ,जबकि बंदूके मुझसे वंचित थी और मैं आगे बड़ा पिस्तौल निकाली और दाग दी ,स्वास्थ और बुद्धिमता में दुर्बल मुझ जैसे बालक को अपनी माँ को देने के लिए सिर्फ अपना खून ही होता है ,और मैंने अपना वही खून माँ की वेदी पर बलिदान कर दिया | आज के समय में केवल भारत को एक ही पाठ की आवश्यकता है और वो है बलिदान और वो हम खुद के प्राण न्योछावर करके सिखलायेंगे ,मेरी प्रभु से केवल एक ही प्राथर्ना है मैं हर जन्म में इसी माँ की कोख से जन्म लू और तब तक बलिदान होता जाऊ तब तक यह पवित्र कार्य पूर्ण न हो जाये ,वन्देमातरम " यह अमर कथन है पंजाब और खत्री कुल में जन्मे अमर बलिदानी स्वर्गी मदन लाल ढींगरा जी का जब उन्हें १७ अगस्त १९०९ को पैंटोनविल्लिए कारावास में मृत्यदंड होने जा रहा था | स्वर्गीय ढींगरा जी एक बहुत ही प्रतिष्ठित खत्री परिवार में १८ सितम्बर १८८३ को साहिब दत्ता मल के यहाँ अमृतसर में जन्मे थे जो की एक बहुत ही प्रतिष्ठत नेत्र विशेषज्ञ और शल्य चिकित्सक थे ,वह पहले अमृतसरी भारतीय थे जिनके पास कार हुआ करती थी और उनके पास ६ बग्गी वाली गाड़ी भी थी जो घोड़ो द्वारा चलाई जाती थी और बघी खाने में रखी जाती थी (इसी कार्य के लिए बघी खाने को बनाया गया था )| साहिब दत्ता मल के सात पुत्र और एक पुत्री थी ,उनके सबसे बड़े पुत्र कुंदन लाल जो की नेत्र विशेषज्ञ थे और बड़े व्यापक यात्री होने के साथ साथ वह एक बड़े ही फलते-फूलते कपड़ो के व्यापारी भी थे,डॉ मोहन लाल ढींगरा (M.D,F.R.C.S,M.R.C.P लंदन से ) जो की अपनी मनोविज्ञान के ऊपर लिखी पुस्तक के कारण काफी प्रसिद्ध थे और साथ साथ जींद के मुख्य चिकित्सा अधिकारी भी थे ,डॉ बिहारी लाल ढींगरा (M.D,M.R.C.P )लंदन से प्राप्त एक जाने माने डॉक्टर थे ,चमन लाल ढींगरा जी ने लंदन से कानून में वकालत की थी और अमृतसर की दिवालिया न्यायालय के आधिकारिक प्राप्तकर्ता भी थे पंजाब के उच्च न्यायालय में ,इनका विवाह बिहार के कूच की महारानी के साथ हुआ था ,चुन्नी लाल ढींगरा जो की एक अन्य वकील थे ढींगरा भाइयों में ,जम्मू में मुंसिफ थे ,उनके बाद थे मदन लाल ढींगरा और भजन लाल ढींगरा (सबसे छोटे भाइयो में ) भी लंदन से कानून में वकालत कर रहे थे | दत्ता मल की पुत्री और सातों भाइयो की बहन काकी रानी जिनका विवाह साहीवाल (पाकिस्तान) के एक बड़े जमींदार चेतन दास के साथ हुआ था | इस प्रकार इनका परिवार एक उच्च शिक्षित ,व्यापक यात्रा करने वाला ,ब्रिटिश अधिकारियों के साथ काफी अच्छी तरह से जुड़े होने ,चिकित्सा कानून व्यवसाय जैसे पेशों के साथ पदानुक्रम एक सार्वलौकिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थे और साथ ही इनका बोलबाला केवल अमृतसर में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण पंजाब में था |अधिकारी तंत्र,ऊँची हैसियत और ब्रितानियों के शुभ चिंतक होने के बावजूद भी मदन लाल ढींगरा ने देशभक्ति का पथ चुना | उन्होंने नगरपालिका कॉलेज अमृतसर से १२ वी द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की और सरकारी कॉलेज लाहौर में भर्ती हुए ,वह उन दिनों स्वतंत्रता सेनानियों लाल बाल और पाल के स्वतंत्रता संग्राम से बहुत ही प्रभावित हुए थे ,उन दिनों ऐसे स्वतंत्रता संग्राम लाहौर और अमृतसर में अपनी चरम सीमा पर थे | उस समय कृष्णा लाल ,डॉ सतपाल ,लाला दुनी चंद ,लाला हरदयाल ,शाम लाल ,सुखदेव ,सोहन सिंह पाठक (पट्टी),तेजा सिंह इत्यादि उस समय लाहौर विश्विद्यालय में पड़ रहे थे ,और ये सभी के सभी स्वतंत्रता संग्राम और ब्रितानी विरोधी आंदोलन से जुड़े हुए थे ,इस तरह के देशभक्ति वाले वातावरण से घिरे हुए होने के कारण उनका स्वतंत्रता संग्राम में पदार्पण हुआ और वो लाहौर के आंदोलनो में भाग लेने लगे ,कॉलेज में इंग्लैंड से आये कपड़ों के खिलाफ धरना दे दिया ,इसी कारणवश उन्हें लाहौर विश्विद्यालय से निष्काषित कर दिया | इनके निष्कासन के बाद इनको घर से सहायता बंद हो गई और वह श्रम की बड़ी गरिमा के साथ उन्होंने बंदोबस्त विभाग पंजाब में क्लर्क की नौकरी करने लगे जहाँ उनके साथ एक ब्रितानियों ने उनके साथ अनेको दुर्व्यवाहर किये जिससे उनके मन में अंग्रेजो के प्रति घृणा भाव उत्पन हो गया और उन्होंने क्लर्क की नौकरी त्याग दी,इसके बाद उन्होंने शिमला-कालका रोड के राय दौलत राम के यहाँ टांगा चालक की नौकरी की और जल्द ही किसी कारणवश वो नौकरी भी छोड़ दी ,इसके बाद इन्होने मजदूर के तौर पर एक कारखाने में नौकरी की जहाँ उन्होंने मजदूर संघ का नेतृत्व किया जिसके विरोध में उन्हें नौकरी से निकाल दिया ,उसके बाद वह मदद के लिए अपने घर को अग्रसर हुए जहाँ उनको उनके राजनैतिक आंदोलनो के कारण घर वालो ने ठुकरा दिया ,उसके बाद उन्होंने मुंबई में खलासी की भी नौकरी की और कुछ दिन बाद लन्दन चले गए ,जहां अधिक खर्चीले जीवन व्यतीत होने के कारण उन्हें वापस भारत आना पड़ा | अपने बड़े भाई कुंदन लाल के द्वारा उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए के लिए जोर देने पर १९०६ में वह एक बार फिर लंदन आये और उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ लंदन में यांत्रिक अभियांत्रिकी की पढ़ाई शुरू कर दी ,यही लंदन में उनकी भेट वीर सावरकर और कृष्णा वर्मा जैसे महान क्रांतिकारियों से हुई ,श्यामजी कृष्ण वर्मा ने “इंडिया होमरूल सोसाइटी” की स्थापना की थी और भारतीय छात्रों के रहने के लिए “इंडिया हाउस” बना लिया था |उस समय "इंडियन हाउस " लन्दन में स्वतंत्रता संग्रामो का मुख केंद्र हुआ करता था ,मदन लाल ढींगरा वहाँ कुछ समय के लिए आवासी भी रहे और वह प्रतिदिन वीर सावरकर की "अभिनव भारत सोसाइटी " संस्था द्वारा आयोजित चर्चा व वाद विवाद में भाग लिया करते थे|एक ऐसी ही वाद विवाद में एक चर्चा का विषय उठा की "भारत का सबसे बड़ा दुश्मन कौन है ",कइयों ने लार्ड करजन के नाम का समर्थन किया तो ,कइयों ने यह कहते हुए उसे मित्र माना की उसके कारणवश भारतीय अपनी निद्रा से जागे है , लार्ड मोर्ले के कहने पर ही ,करजन ने भारत में अनर्गल दमन की नीति को अमल किया था ,मदन लाल ढींगरा के अनपेक्षित रूप से किये विश्लेषण में पाया की लार्ड कर्ज़न और कर्ज़न वायली दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू है | मदन लाल ढींगरा ने कहा की हमे क्रिया की आवश्यकता है न की शब्दों की ,अगर हमारा लक्ष्य विजय है तो भारत में बलिदानियों का होना अनिवार्य है ,दिसंबर १९०८ को उन्होंने स्वयं को मातृभूमि के लिए बलिदान होने का संकल्प लिया ,वह बार बार "रंगीन पुरुषों और अंग्रेजी महिलाओं" जैसे अंग्रेजी लेख को पड़ते थे जो की "लंदन ओपिनियन "(लंदन की राय) और "बाबू ब्लैक शीप " जैसे लेख जो की "कैसेल्स साप्ताहिक" में प्रकाशित हुआ करते थे ,इन लेखो को पड़के उनके मन में अंग्रेजो के प्रति तृव व आक्रमक भावनाएं प्रकट होने लगी ,वह समझने लग गए थे की सिर्फ ताकत से ही अंग्रेजो को समझाया जा सकता है ,उनके पास भारत की अनेक समस्याओं का हल था , वह अंधाधुन अंग्रेजो का नरसंघार करना चाहते थे | उनके मित्र एच.के कोरेगाओकर के जो की एक अन्य इंडिया हाउस के सदस्य थे उनके पास एक तरकीब थी P&O Steam को उड़ाने की उन्होंने यह तरकीब वीर सावरकर से भी साझा की परन्तु वीर सावरकर सर्वप्रथम लार्ड कर्ज़न और अगर लार्ड कर्ज़न नहीं तो लार्ड मोर्ले के वध का निश्चय किया ,एक बार तो ढींगरा को भी सुवोय होटल के निकट अवसर भी प्राप्र्त हुआ परन्तु दो फोटोग्राफर लार्ड कर्ज़न के पास खड़े थे और कर्ज़न बड़े ही चमत्कारिक ढंग से से ओझल हो गया ,उनके मन में अन्य तरकीब भी थी जैसे हाउस ऑफ़ कॉमन (ब्रितानी संसद) के सांसदों को दहलीज़ से उड़ाने की परन्तु यह सम्भव नहीं था ,क्योकि हाउस ऑफ़ कॉमन का गलियारा दर्शको के लिए प्रतबंधित था ,मदन लाल के आदर्श "कांति लाल दत्ता " थे जिन्होंने अलीपुर जेल में नरेंद्र दास गोसाई की हत्या की थी | लंदन में ही मदन लाल ढींगरा और अन्य क्रांतिकारियों के सहयोग से "शक्ति पूजा समिति " का गठन हुआ जिसका उद्देश्य जिउ जित्सु (ब्राज़ीलियाई आत्मरक्षक प्रणाली ),कुश्ती ,मुक्केबाजी और अन्य आत्मरक्षक प्रणाली का प्रशिक्षण दिया जाता था ,जिसके ढींगरा अध्यक्ष ,जे.डी दास उपाध्यक्ष,कोरेगाओकर कोषाध्यक्ष थे | मदन लाल ढींगरा और जे.डी दास के अन्य निशानेबाज़ी संस्था भी खोलना चाहते थे अपने अंग्रेज मित्रो के साथ परन्तु अंग्रेजो ने उनका साथ न दिया ,बाद में इस विचार को अस्वीकार कर दिया गया और बाद में ढींगरा और उनके अन्य मित्रो ने "हेनरी स्टैंटन मोर्ले " की निशानेबाज़ी संस्था ,टॉटेनहम ,कोर्ट रोड,लन्दन में अभ्यास करना शुरू कर दिया ,कुछ ही महीनो में मदन लाल ढींगरा निशानेबाज़ी में कुशल हो गए | १९०९ की दो घटनाओं ने उनकी भविष्य की कार्रवाई को निर्धारित कर दिया था पहली थी "पोलिश क्रांतिकारी पार्टी का घोषणापत्र"जिसमे हथियार उठाना और उग्रवाद की वकालत की थी और इसे एक ऐतिहासिक पराधीन लोगो द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति की विधि बताय गया था | दूसरा था ९ जून गणेश दामोदर दास (वीर सावरकर के भाई ) की गिरफ्त्तारी ,दोषसिद्धि ,और उनके जीवन के परिवहन की ,नासिक में जिसमे उनको सम्राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने पर सजा सुनाई गई थी | उन्होंने पहले ही संकल्प ले लिया था और उच्च अधिकारियों और सेवानिवृत्त नौकरशाहोंके समाज में घुलमिल गए थे ,लंदन में अभिजात वर्ग क्लब की सदस्यता के माध्यम से और उन्होंने अपने अभिव्यक्त उद्देश्य से भारतीय राष्ट्रीय संघ से भी जुड़े ताकि कुछ आवश्यक लोगों से जुड़ा जा सके ,अंत में मदन लाल ढींगरा ने कर्ज़न की हत्या का निश्चय किया ,वास्तव में वह अपने फैसले के बाद से ही मई और जून में टोलेंथम शूटिंग रेंज में अभ्यास के लिए काफी नियमित थे , ठीक उस दिन तक जब उन्होंने कर्जन को मार नहीं डाला | उनके अभ्यास करने का नियमित समय नहीं था वह कभी रात्रि के १२ बजे या दिन के १ बजे या शाम के ५ बजे जब भी उन्हें अवसर प्राप्त होता वह जाते थे ,उनका यह अभ्यास सभी से गुप्त रखा था उन्होंने ,यहाँ तक की उनकी मकान मालिक मैरी हैरिस और उनके भाई को भी पता नहीं चल पाई थी | जब उन्हें पता चला कि १ जुलाई १९०९ की शाम को भारतीय राष्ट्रीय संघ लंदन के शाही अध्ययन संस्थान के जहांगीर घर में समारोह का आयोजन करने जा रहा है,जहॉ अधिक मात्रा में अंग्रेज एकत्रित होंगे जिसमे लार्ड कर्ज़न,लार्ड मोर्ले ,लार्ड कर्ज़न विल्ली भी आमंत्रित है ,उन्होंने बड़े जोश के साथ फैसला किया कि आज भारत विरोधियो का यह आखिरी समारोह होगा,१ जुलाई १९०९ के दिन वो अध्यन के लिए नहीं गए और अपने ही निवास स्थान पर रहे ,शाम के ५.०० बजे वह शूटिंग रेंज पहुंच कर अभ्यास करने लगे और उन्होंने १२ शॉट में ८ बार शिकार को भेद दिया था ,ढींगरा ने तत्पश्चात अपने कोच मोर्ले को उनकी पिस्टल साफ़ करने को कहा और उसके बाद उनकी पिस्तौल लेकर वह प्रस्थान कर गए | शाम के वक्त उन्होंने एक लम्बा गहरे रंग का अंग्रेजी सूट धारण किया और नीली पग के साथ वह जहाँगीर घर को प्रस्थान कर गए ,कुछ देर तक लार्ड कर्ज़नऔर लार्ड मोर्ले के न दिखने पर वह अत्यंत चिन्तित हो गए परन्तु कुछ क्षण बाद ही उन्होंने देखा की कर्ज़न अपनी पत्नी के साथ पधार रहा है ,उन्होंने उसके अभिवादन के साथ ही ५ गोलियां उसके चेहरे के बाये हिस्से में दाग दी,वह बिना चीख के ही वही गिर पड़ा ,कोवासजी लालकाका जो की एक पारसी डॉक्टर थे और वह कर्ज़न की जान बचाने की कोशिश कर रहे थे उनको भी मदन लाल की ६ गोली से अपनी जान गवानी पड़ी क्योंकि उन्होंने मदन लाल को पकड़ लिया था ,हालांकि यह गोली उन्होने आत्मरक्षा में चलाई थी जिसको उन्होंने कोर्ट में सत्यापित भी किया था | किसी भारतीय क्रांतिकारी द्वारा लंदन में यह चलाई पहली गोली थी जिसने अंग्रेजो को बता दिया था की भारतीय अब जाग चुके है | जब भीड़ में किसी ने उन्हें हत्यारा कहा तो उन्होंने आपत्ति जताते हुए कहा कहा की वह एक देशभक्त है और वह विदेशियों से अपनी मातृभूमि की मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे है और उन्होंने जो किया है वो ठीक किया है ,उन्होंने भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ़्तारी करवाई | ढींगरा को वॉल्टन स्ट्रीट पुलिस स्टेशन ले जाया गया जहॉ उनकी छानबीन में उनसे एक खाली और एक चैम्बर लोडेड पिस्तौल बरामद की ,साथ साथ एक कटार ,कागज के कुछ टुकड़े ,एक कलम ,एक चाकू और कुछ लपेटे हुए कागज भी प्राप्त हुए |उनके आवास की भी छानबीन की गई जहाँ से कुछ महत्वपूर्ण तस्वीरें प्राप्त हुई जिसमे से एक रुसी चित्रकार वेरास्तीचागिन द्वारा एक चित्र था जिसमे १८५७ की क्रांति में हिंदुस्तानी क्रांतिकारियों की अंग्रेजो द्वारा हत्या का चित्रण था ,एक कर्ज़न विल्ली की एक तस्वीर थी जिसपे असभ्य कुत्ता अंकित था और साथ ही तारक नाथ दस जो की एक निर्वासित क्रांतिकारी थे उनकी तस्वीर थी और एक ब्रितानी संसद की उलटी लटकी तस्वीर प्राप्त हुई | उनपर हत्या का आरोप लगाया गया और कारावास भेज दिया गया ,वीर सवारकर ने उन्हें वकील करने को भी कहा परन्तु मदन लाल ढींगरा ने मना कर दिया | सबसे शानदार पल तो १० जुलाई १९०९ के उनके बेली में परीक्षण का था जब उनसे न्यायाधीश ने पूछा की क्या वह अपनी पक्ष रखना चाहते है ,मदन लाल ने कहा "मैं अपने बचाव में कुछ नहीं कहना चाहता, लेकिन अपने कर्म को उचित समझता हूँ ,खुद के लिए मुझे नहीं लगता कि किसी भी अंग्रेजी कानून अदालत के पास मुझे दोषी ठहराने का कोई अधिकार है और न ही कारावास में कैद या कोई सजा सुनाने का अधिकार है ,और मैं इस बात को बनाए रखता हूं तब भी अगर किसी अंग्रेज का जर्मनों से लड़ना देशभक्ति है क्योकि अगर उनका देश जर्मनों के अधीन है ,तो अंग्रेजो के खिलाफ लड़ने के लिए मेरे मामले में यह बहुत अधिक न्यायसंगत और देशभक्ति है,मैं अंग्रेजो को पिछले ५० साल में अपने ८ मिलियन लोगो की हत्या का दोषी साबित करता हूँ ,साथ ही हर साल १०० मिलियन पाउंड हर साल भारत से छीनने का दोषी भी मानता हूँ और साथ ही साथ अपने देश के लोगो की फांसी और निर्वासन का भी दोषी मानता हूँ "| मदना लाल ढींगरा को २३ जुलाई १९०९ को बेली में फाँसी दे दी गई ,उनकी फाँसी का आदेश २० मिनट से कम में लिया गया और यह अंग्रेजी इतिहास में इतने कम समय में दिया हुआ पहला आदेश था ,उन्होंने अपने आखरी शब्दों को कुछ इस प्रकार प्रकट किया "मुझे गर्व है की मैं अपने प्राण अपनी मातृभूमि के लिए न्योछावर कर रहा हूँ ,एक दिन हमारा समय अवश्य आएगा "| आयरिश प्रेस ने उनको अभिनायक कहा ,एनी बेसेंट ने उन्हें कहा "मदन लाल आज के समय की आवश्यकता है ",वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय ने उनके नाम से एक मासिक पत्रिका का श्री गणेश किया जिसका नाम "मदन तलवार "था और जर्मनी से प्रकाशित होती थी और जल्द ही यह अन्य बहार रहने वाले क्रांतिकारियों की आवाज़ बन गई ,"बन्दे मातृम "ने १० सितम्बर को उनके बारे लिखा की "मदन लाल अमर है और वो अपने शब्दों और कर्मो से सदियों तक जीवित रहेंगे ,शामजी कृष्ण वर्मा जो की इंग्लैंड और फ्रांस में कार्यरत क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर रहे थे उन्होंने "द टाइम्स लंदन "के माध्यम से कहा "मेरा उनके साथ कोई संबंध न होने के बाद भी ,मैं स्पष्ट रूप से मानता हूं कि उनका कृत्य उन्हें भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन में उन्हें बलिदानी की उपाधि दे गया ,मुझे पता है कि इस घोषणा से कई लोगों को झटका लगेगा,परन्तु इंग्लैंड के ही कुछ पत्रकार मुझसे सहमत भी होंगे की एक राजनीतिक अस्मिता हत्या नहीं है"विक्टर ग्रेसन जो की १९०७-१० तक एक समाजवादी सांसद थे ब्रिटेन के उन्होंने अपने भाषण में कहा था की मैंने मैंने कर्ज़न के हत्यारे का चित्र देखा जिसे की लोग हत्यारा बोल रहे है ,मैं अपने लोगो से पूछना चाहता हूँ की इस सूचि में लार्ड मोर्ले को क्यों नहीं रखते और उसे भी हत्यारा संबोधित करना चाहिए ,उन्होंने कर्ज़न की हत्या विरोध न करके भारतीयों के प्रति संवेदना प्रकट की और अपने लोगो द्वारा किये अत्याचार का विरोध किया ,वि.एस ब्लंट एक अन्य ब्रितानी सांसद ने कहा की "किसी भी ईसाई बलिदानी ने अपने न्यायाधीशों का सामना इस इतने गौरवपूर्ण तरिके से नहीं किया जितना की ढींगरा ने ",उन्होंने यह भी लिखा की अगर भारत में ५०० बलिदानी अगर ढींगरा की तरह जन्म लेते है जिनमे उनकी तरह भय नाम की चीज न हो तो भारत को तुरंत स्वतंत्रता प्राप्त हो जाये ,उन्होंने ब्रिटेन के उस समय के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को पत्र लिखकर ढींगरा की देशभगत के रूप में प्रशंशा की और विंस्टन ने भी ढींगरा को प्लूटार्क के बलिदानियों से तुलना की | लाला हरदयाल ग़दर पार्टी के संस्थापक उन्होंने कहा की उनको मध्यकालीन राजपूतो की याद आ गई जो मौत से एक दुल्हन की तरह प्यार करते थे जैसे की दुल्हन को दुलाह लेने आया हो ,इंग्लैंड सोच रहा था की उसने ढींगरा को फांसी दे दी है परन्तु वो अमर हो चुके थे और उन्हें ब्रिटिश संप्रभुता के लिए मौत का बिगुल बजा दिया था | मदन लाल ढींगरा पहले भारतीय युवा क्रांतिकारी थे जिन्होंने हस्ते हस्ते फांसी के फंदे को चूमा ,मदन लाल ढींगरा अनेक क्रांतिकारियों के आदर्श बने ,करतार सिंह सराभा ,उधम सिंह ,भगत सिंह ,सुभाष चंद्र बोस,चंद्र शेखर आज़ाद जैसो अनेको ने उन्हें अपना आदर्श माना ,मदन लाल ढींगरा के १९०९ के इस साहासिक कृत के बाद मातृभूमि के लिए अनेको वध हुए ,१९०९ में ८,१९१० में २ ,१९११ में ८,१९१२ में ३,१९१३ में ५,१९१४ में ४ ,१९१५ में २२ ,१९१६ में और १९१७ में ७ और १९४७ तक यह सिलिसिला इसी तरह कायम रहा ,एक अमरीकी राज्य के वकील इसे पूरी तरह से सहमत होते हुए कहते है की "आज से ५ साल पहले किसी में ब्रितानियों का विरोध करने ,लिखने की हिम्मत नहीं थी परन्तु अब समय बदल चूका है लोग जाग चुके है ,हर कोई किसी ने किसी माध्यम से बदलना लेने को आतुर है ,कोई बम से तो कोई अपने प्राणो से मांग रहा है स्वतंत्रता,अब भारतीयों से सहन नहीं हो रहा " जो भारतीय अंग्रेजो के शुभचिंतक बने हुए है उनका भी बहिष्कार शुरू हो चूका है और उन्हें गद्दार घोषित किया जाने लगा है ,इसलिए अंत में यह सहमति है कि १७ अगस्त १९०९ की सुबह हर भारतीय के दिल में लाल अक्षरों में उकेरी जाएगी जो अपनी मातृभूमि से प्यार करते है ,यह सुबह वह है जब ढींगरा की पवित्र गर्दन रस्सी के फंदे में झूल रही है ,पेंटोविल्ली कारावास में ,आज मदन लाल ढींगरा अपने पार्थिव शरीर में हमारे साथ तो नहीं है परन्तु इनकी पवित्र आत्मा हमारे साथ सदैव रहेगी और इस क्रन्तिकारी आंदोलन में हमारा मार्गदर्शन करेगी और उनका भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा "| उनके निष्पादन के बाद, ढींगरा के शरीर को हिंदू संस्कारों से वंचित कर दिया गया था और ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा दफनाया गया था। उनके परिवार ने उन्हें अस्वीकार कर दिया था और अधिकारियों ने शव को वीर सावरकर को सौंपने से इनकार कर दिया था ,अधिकारियो को गलती से इनका ताबूत मिला जब वह बलिदानी उधम सिंह जी के अवशेषो की खोज कर रहे थे ,१२ दिसंबर १९७६ को उनकी अस्थियाँ वापस भारत लाई गई और उनके अवशेषों को मुख्य चौराहों में से एक में रखा गया है,महाराष्ट्र के अकोला शहर के चौक के नाम उनके नाम पर रखा गया है ,कुछ समूहों की मांग थी कि उनके पैतृक घर को एक संग्रहालय में बदल दिया जाए। हालांकि, उनके वंशजों ने उनकी विरासत को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और अगस्त २०१५ में उनकी मृत्यु के सम्मान के लिए आयोजित कार्यक्रमों में भाग लेने से इनकार कर दिया और उनके परिवार ने अपने पैतृक घर को किसी और को बेच दिया और इसे भाजपा नेता लक्ष्मी कांता चावला द्वारा खरीदे जाने की पेशकश को इनकार कर दिया, जिन्होंने इसे एक संग्रहालय में बदलना चाहा।वह जानते थे कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी इंडिया हाउस में चल रही क्रांतिकारी गतिविधियों से अवगत थे और और उन्होंने कर्जन के तहत एक प्रतिद्वंद्वी संस्थान बनाई और यह क्रांतिकारी गतिविधियों पर दोगुना खतरा था ,उसने एक प्रतिद्वंद्वी युवा क्लब की स्थापना की जिससे वह भारतीय नौजवानों के मन में क्रांतिकारियों के प्रति घृणा को जन्म दे सके ,इसके साथ साथ ही उसने देशभक्त छात्रों की जासूसी करवानी शुरू कर दी जिससे की वह राज्य सचिव और सरकार को उनके बारे खबरे देने लगा | मदन लाल ढींगरा यह जानते थे की कर्ज़न बहुत ही अभिमानी और हर असर तरीके से प्रताड़ित करने वाला है ,उसने कई बार भारतीय छात्रों के साथ अपराध भी किया था ,उसके पिछले कीर्तिमान उसकी शत्रुता की भावना को दर्शाते थे ,समय समय पर कृष्णा वर्मा ,वीर सावरकर ,इंडिया हाउस के अन्य क्रांतिकारियों को वह लज्जित और प्रताड़ित किया करता था | कर्ज़न के मदन लाल ढींगरा के परिवार से घनिष्ठ संबंध थे ,वह समय समय पर मदन लाल ढींगरा की एक एक क्रांतिकारी आंदोलन की खबरे उनके घर और उनके भाई कुंदन लाल को दिया करता था | उनके भाई के पत्र का जवाब मिलने पर कर्ज़न ने ढींगरा को १३ अप्रैल १९०९ पत्र लिख करको मिलने को कहा और साथ ही साथ उसने एमा जोसेफिन (राष्ट्रीय भारतीय संघ के मानद सचिव) थी ,उन्होंने भी ढींगरा को ५ मई १९०९ को पत्र लिखकर कर्ज़न से मिलने की प्रार्थना की ,मदन लाल यह जान गए थे की वह उनको रास्ते से हटाना चाहता है ,और उसके द्वारा लिखे पत्र से उनके घर वालो ने भी यही प्रयास करने शुरू कर दिए थे |